Durga Mantra | मां दुर्गा के कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र ( अर्थ सहित )

Durga Mantra (सप्तश्लोकी दुर्गा)
ॐ ॐ ॐ

ॐ ॐ

=सप्तश्लोकी दुर्गा=

= ☀☀☀☀☀सप्तश्लोकी दुर्गा☀☀☀☀☀=

शिव जी बोले – हे देवी तुम भक्तों के लिए सुलभ हो और समस्त कर्मों का विधान करने वाली हो | कलियुग में कामनाओं की सिद्धि हेतु यदि कोई उपाय हो तो उसे अपनी वाणी द्वारा सम्यक रूप से व्यक्त करो |

देवी ने कहा – हे देव |आपका मेरे उपर बहुत स्नेह है |कलियुग में समस्त कामनाओ को सिद्ध करनेवाला जो साधन है वह बताऊंगी सुनिए ! उसका नाम है “अम्बा-स्तुति ” ||

ॐ इस दुर्गा सप्त श्लोकी स्तोत्र मन्त्र के नरायण ऋषि हैं, अनुष्टुप छंद है, श्री महाकाली, महालक्ष्मी, और महासरस्वती देवता हैं, श्री दुर्गा की प्रसन्नता के लिए सप्त श्लोकी दुर्गा पाठ में इसका विनियोग किया जाता है |

वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बल पूर्वक खींच कर मोह में ड़ाल देती हैं || १ ||

माँ दुर्गे ! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिंतन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं | दुःख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवी ! आपके सिवा दूसरी कौन हैं, जिसका चित सबका उपकार करने के लिए सदा ही दयाद्र रहता हो || २ ||
नारायणी ! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करनेवाली मंगलमयी हो | कल्याणदायिनी शिवा हो | सब पुरुषार्थों को सिद्ध करनेवाली, शरणागत वत्सला , तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो | तुम्हे नमस्कार है || ३ ||

शरण में आये हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सबकी पीड़ा दूर करनेवाली नारायणी देवी! तुम्हे नमस्कार है|| ४ ||

सर्व स्वरुपा सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से संपन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवी ! सब भयों से हमारी रक्षा करो ; तुम्हे नमस्कार है || ५ ||

देवी तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों का नाश कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो |जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं , उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं | तुम्हारी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं ||६||

सर्वेश्वरी! तुम इसी प्रकार तीनो लोकों की समस्त बाधाओं को शांत करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो ||७ ||

समाप्त
“ॐ क्लींग ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती ही सा, बलादाकृष्य मोहय महामाया प्रयच्छति “

ॐ ॐ

=☀☀☀☀☀दुर्गा नाम माला☀☀☀☀☀=

दुर्गा दुर्गार्तिशामिनी दुर्गापद्विनिवारिणी |
दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी ||

दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहंत्री दुर्गमापहा |
दुर्गमज्ञानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला ||

दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी |
दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविधया दुर्गमाश्रिता ||

दुर्गमज्ञानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी |
दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी ||

दुर्गमासुरसहंत्री दुर्गमायुधधरिणी |
दुर्गमाङगी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी||

दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्ग दारिणी |
नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम मानवः पठेत सर्व भयनुमुक्तो भविष्यति न संशयः ||

जो मनुष्य मुझ दुर्गा की इस नाममाला का पाठ करता है वह निःसंदेह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाएगा |

समाप्त
“शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”


दुर्गा सप्तशती रहस्य

ॐ ॐ

☀☀☀☀☀ दुर्गा सप्तशती रहस्य☀☀☀☀☀

ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्द:, महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्त्यर्थ जपे विनियोग:।

अर्थ :- ॐ सप्तशती के इन तीनों रहस्यों के नारायण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता हैं। शास्त्रोक्त फल की प्राप्ति के लिये जप में इनका विनियोग होता है।

प्रथम रहस्य- अथ प्रधानिकं रहस्यम्
द्वितीय रहस्य- अथ वैकृतिकं रहस्यम्
तृतीय रहस्य- अथ मूर्ति रहस्यम्
समाप्त
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि। गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

देवी कवच/चण्डी कवच
देवी कवच/चण्डी कवच

ॐ ॐ

☀☀☀☀☀देवी कवच/चण्डी कवच☀☀☀☀☀

विनियोग –
ॐ अस्य श्रीदेव्या: कवचस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द:, ख्फ्रें चामुण्डाख्या महा-लक्ष्मी: देवता, ह्रीं ह्रसौं ह्स्क्लीं ह्रीं ह्रसौं अंग-न्यस्ता देव्य: शक्तय:, ऐं ह्स्रीं ह्रक्लीं श्रीं ह्वर्युं क्ष्म्रौं स्फ्रें बीजानि, श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये सर्व रक्षार्थे च पाठे विनियोग:।

ऋष्यादि-न्यास –
ब्रह्मर्षये नम: शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नम: मुखे, ख्फ्रें चामुण्डाख्या महा-लक्ष्मी: देवतायै नम: हृदि, ह्रीं ह्रसौं ह्स्क्लीं ह्रीं ह्रसौं अंग-न्यस्ता देव्य: शक्तिभ्यो नम: नाभौ, ऐं ह्स्रीं ह्रक्लीं श्रीं ह्वर्युं क्ष्म्रौं स्फ्रें बीजेभ्यो नम: लिंगे, श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये सर्व रक्षार्थे च पाठे विनियोगाय नम: सर्वांगे।

ध्यान-
ॐ रक्ताम्बरा रक्तवर्णा, रक्त-सर्वांग-भूषणा।
रक्तायुधा रक्त-नेत्रा, रक्त-केशाऽति-भीषणा।।1
रक्त-तीक्ष्ण-नखा रक्त-रसना रक्त-दन्तिका।
पतिं नारीवानुरक्ता, देवी भक्तं भजेज्जनम्।।2
वसुधेव विशाला सा, सुमेरू-युगल-स्तनी।
दीर्घौ लम्बावति-स्थूलौ, तावतीव मनोहरौ।।3
कर्कशावति-कान्तौ तौ, सर्वानन्द-पयोनिधी।
भक्तान् सम्पाययेद् देवी, सर्वकामदुघौ स्तनौ।।4
खड्गं पात्रं च मुसलं, लांगलं च बिभर्ति सा।
आख्याता रक्त-चामुण्डा, देवी योगेश्वरीति च।।5
अनया व्याप्तमखिलं, जगत् स्थावर-जंगमम्।
इमां य: पूजयेद् भक्तो, स व्याप्नोति चराचरम्।।6

।।मार्कण्डेय उवाच।।
ॐॐॐ यद् गुह्यं परमं लोके, सर्व-रक्षा-करं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं, तन्मे ब्रूहि पितामह।।1

।।ब्रह्मोवाच।।
ॐ अस्ति गुह्य-तमं विप्र सर्व-भूतोपकारकम्।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं, तच्छृणुष्व महामुने।।2
प्रथमं शैल-पुत्रीति, द्वितीयं ब्रह्म-चारिणी।
तृतीयं चण्ड-घण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।3
पंचमं स्कन्द-मातेति, षष्ठं कात्यायनी तथा।
सप्तमं काल-रात्रीति, महागौरीति चाष्टमम्।।4
नवमं सिद्धि-दात्रीति, नवदुर्गा: प्रकीर्त्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि, ब्रह्मणैव महात्मना।।5
अग्निना दह्य-मानास्तु, शत्रु-मध्य-गता रणे।
विषमे दुर्गमे वाऽपि, भयार्ता: शरणं गता।।6
न तेषां जायते किंचिदशुभं रण-संकटे।
आपदं न च पश्यन्ति, शोक-दु:ख-भयं नहि।।7
यैस्तु भक्त्या स्मृता नित्यं, तेषां वृद्धि: प्रजायते।
प्रेत संस्था तु चामुण्डा, वाराही महिषासना।।8
ऐन्द्री गज-समारूढ़ा, वैष्णवी गरूड़ासना।
नारसिंही महा-वीर्या, शिव-दूती महाबला।।9
माहेश्वरी वृषारूढ़ा, कौमारी शिखि-वाहना।
ब्राह्मी हंस-समारूढ़ा, सर्वाभरण-भूषिता।।10
लक्ष्मी: पद्मासना देवी, पद्म-हस्ता हरिप्रिया।
श्वेत-रूप-धरा देवी, ईश्वरी वृष वाहना।।11
इत्येता मातर: सर्वा:, सर्व-योग-समन्विता।
नानाभरण-षोभाढया, नाना-रत्नोप-शोभिता:।।12
श्रेष्ठैष्च मौक्तिकै: सर्वा, दिव्य-हार-प्रलम्बिभि:।
इन्द्र-नीलैर्महा-नीलै, पद्म-रागै: सुशोभने:।।13
दृष्यन्ते रथमारूढा, देव्य: क्रोध-समाकुला:।
शंखं चक्रं गदां शक्तिं, हलं च मूषलायुधम्।।14
खेटकं तोमरं चैव, परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं च खड्गं च, शार्गांयुधमनुत्तमम्।।15
दैत्यानां देह नाशाय, भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं, देवानां च हिताय वै।।16
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे ! महाघोर पराक्रमे !
महाबले ! महोत्साहे ! महाभय विनाशिनि।।17
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये ! शत्रूणां भयविर्द्धनि !
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री, आग्नेय्यामग्नि देवता।।18
दक्षिणे चैव वाराही, नैऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारूणी रक्षेद्, वायव्यां वायुदेवता।।19
उदीच्यां दिशि कौबेरी, ऐशान्यां शूल-धारिणी।
ऊर्ध्वं ब्राह्मी च मां रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा।।20
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शव-वाहना।
जया मामग्रत: पातु, विजया पातु पृष्ठत:।।21
अजिता वाम पार्श्वे तु, दक्षिणे चापराजिता।
शिखां मे द्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता।।22
मालाधरी ललाटे च, भ्रुवोर्मध्ये यशस्विनी।
नेत्रायोश्चित्र-नेत्रा च, यमघण्टा तु पार्श्वके।।23
शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये, श्रोत्रयोर्द्वार-वासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्, कर्ण-मूले च शंकरी।।24
नासिकायां सुगन्धा च, उत्तरौष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृत-कला, जिह्वायां च सरस्वती।।25
दन्तान् रक्षतु कौमारी, कण्ठ-मध्ये तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्र-घण्टा च, महामाया च तालुके।।26
कामाख्यां चिबुकं रक्षेद्, वाचं मे सर्व-मंगला।
ग्रीवायां भद्रकाली च, पृष्ठ-वंशे धनुर्द्धरी।।27
नील-ग्रीवा बहि:-कण्ठे, नलिकां नल-कूबरी।
स्कन्धयो: खडि्गनी रक्षेद्, बाहू मे वज्र-धारिणी।।28
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदिम्बका चांगुलीषु च।
नखान् सुरेश्वरी रक्षेत्, कुक्षौ रक्षेन्नरेश्वरी।।29
स्तनौ रक्षेन्महादेवी, मन:-शोक-विनाशिनी।
हृदये ललिता देवी, उदरे शूल-धारिणी।।30
नाभौ च कामिनी रक्षेद्, गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
मेढ्रं रक्षतु दुर्गन्धा, पायुं मे गुह्य-वासिनी।।31
कट्यां भगवती रक्षेदूरू मे घन-वासिनी।
जंगे महाबला रक्षेज्जानू माधव नायिका।।32
गुल्फयोर्नारसिंही च, पाद-पृष्ठे च कौशिकी।
पादांगुली: श्रीधरी च, तलं पाताल-वासिनी।।33
नखान् दंष्ट्रा कराली च, केशांश्वोर्ध्व-केशिनी।
रोम-कूपानि कौमारी, त्वचं योगेश्वरी तथा।।34
रक्तं मांसं वसां मज्जामस्थि मेदश्च पार्वती।
अन्त्राणि काल-रात्रि च, पितं च मुकुटेश्वरी।।35
पद्मावती पद्म-कोषे, कक्षे चूडा-मणिस्तथा।
ज्वाला-मुखी नख-ज्वालामभेद्या सर्व-सन्धिषु।।36
शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं, रक्षेन्मे धर्म-धारिणी।।37
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्र-हस्ता तु मे रक्षेत्, प्राणान् कल्याण-शोभना।।38
रसे रूपे च गन्धे च, शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्वं रजस्तमश्चैव, रक्षेन्नारायणी सदा।।39
आयू रक्षतु वाराही, धर्मं रक्षन्तु मातर:।
यश: कीर्तिं च लक्ष्मीं च, सदा रक्षतु वैष्णवी।।40
गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत्, पशून् रक्षेच्च चण्डिका।
पुत्रान् रक्षेन्महा-लक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी।।41
धनं धनेश्वरी रक्षेत्, कौमारी कन्यकां तथा।
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमंकरी तथा।।42
राजद्वारे महा-लक्ष्मी, विजया सर्वत: स्थिता।
रक्षेन्मे सर्व-गात्राणि, दुर्गा दुर्गाप-हारिणी।।43
रक्षा-हीनं तु यत् स्थानं, वर्जितं कवचेन च।
सर्वं रक्षतु मे देवी, जयन्ती पाप-नाशिनी।।44
।।फल-श्रुति।।
सर्वरक्षाकरं पुण्यं, कवचं सर्वदा जपेत्।
इदं रहस्यं विप्रर्षे ! भक्त्या तव मयोदितम्।।45
देव्यास्तु कवचेनैवमरक्षित-तनु: सुधी:।
पदमेकं न गच्छेत् तु, यदीच्छेच्छुभमात्मन:।।46
कवचेनावृतो नित्यं, यत्र यत्रैव गच्छति।
तत्र तत्रार्थ-लाभ: स्याद्, विजय: सार्व-कालिक:।।47
यं यं चिन्तयते कामं, तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्नोत्यविकल: पुमान्।।48
निर्भयो जायते मर्त्य:, संग्रामेष्वपराजित:।
त्रैलोक्ये च भवेत् पूज्य:, कवचेनावृत: पुमान्।।49
इदं तु देव्या: कवचं, देवानामपि दुर्लभम्।
य: पठेत् प्रयतो नित्यं, त्रि-सन्ध्यं श्रद्धयान्वित:।।50
देवी वश्या भवेत् तस्य, त्रैलोक्ये चापराजित:।
जीवेद् वर्ष-शतं साग्रमप-मृत्यु-विवर्जित:।।51
नश्यन्ति व्याधय: सर्वे, लूता-विस्फोटकादय:।
स्थावरं जंगमं वापि, कृत्रिमं वापि यद् विषम्।।52
अभिचाराणि सर्वाणि, मन्त्र-यन्त्राणि भू-तले।
भूचरा: खेचराश्चैव, कुलजाश्चोपदेशजा:।।53
सहजा: कुलिका नागा, डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरीक्ष-चरा घोरा, डाकिन्यश्च महा-रवा:।।54
ग्रह-भूत-पिशाचाश्च, यक्ष-गन्धर्व-राक्षसा:।
ब्रह्म-राक्षस-वेताला:, कूष्माण्डा भैरवादय:।।55
नष्यन्ति दर्शनात् तस्य, कवचेनावृता हि य:।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजो-वृद्धि: परा भवेत्।।56
यशो-वृद्धिर्भवेद् पुंसां, कीर्ति-वृद्धिश्च जायते।
तस्माज्जपेत् सदा भक्तया, कवचं कामदं मुने।।57
जपेत् सप्तशतीं चण्डीं, कृत्वा तु कवचं पुर:।
निर्विघ्नेन भवेत् सिद्धिश्चण्डी-जप-समुद्भवा।।58
यावद् भू-मण्डलं धत्ते ! स-शैल-वन-काननम्।
तावत् तिष्ठति मेदिन्यां, जप-कर्तुर्हि सन्तति:।।59
देहान्ते परमं स्थानं, यत् सुरैरपि दुर्लभम्।
सम्प्राप्नोति मनुष्योऽसौ, महा-माया-प्रसादत:।।60
तत्र गच्छति भक्तोऽसौ, पुनरागमनं न हि।
लभते परमं स्थानं, शिवेन सह मोदते ॐॐॐ।।61

।।वाराह-पुराणे श्रीहरिहरब्रह्म विरचितं देव्या: कवचम्।।

समाप्त
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके। घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥

।। दुर्गासहस्रनामस्तोत्रम् ।।

☀☀☀☀☀।। अथ श्री दुर्गासहस्रनामस्तोत्रम् ।।☀☀☀☀☀

नारद उवाच –
कुमार गुणगम्भीर देवसेनापते प्रभो ।
सर्वाभीष्टप्रदं पुंसां सर्वपापप्रणाशनम् ।। १।।
गुह्याद्गुह्यतरं स्तोत्रं भक्तिवर्धकमञ्जसा ।
मङ्गलं ग्रहपीडादिशान्तिदं वक्तुमर्हसि ।। २।।

स्कन्द उवाच –
शृणु नारद देवर्षे लोकानुग्रहकाम्यया ।
यत्पृच्छसि परं पुण्यं तत्ते वक्ष्यामि कौतुकात् ।। ३।।
माता मे लोकजननी हिमवन्नगसत्तमात् ।
मेनायां ब्रह्मवादिन्यां प्रादुर्भूता हरप्रिया ।। ४।।
महता तपसाऽऽराध्य शङ्करं लोकशङ्करम् ।
स्वमेव वल्लभं भेजे कलेव हि कलानिधिम् ।। ५।।
नगानामधिराजस्तु हिमवान् विरहातुरः ।
स्वसुतायाः परिक्षीणे वसिष्ठेन प्रबोधितः ।। ६।।
त्रिलोकजननी सेयं प्रसन्ना त्वयि पुण्यतः ।
प्रादुर्भूता सुतात्वेन तद्वियोगं शुभं त्यज ।। ७।।
बहुरूपा च दुर्गेयं बहुनाम्नी सनातनी ।
सनातनस्य जाया सा पुत्रीमोहं त्यजाधुना ।। ८।।
इति प्रबोधितः शैलः तां तुष्टाव परां शिवाम् ।
तदा प्रसन्ना सा दुर्गा पितरं प्राह नन्दिनी ।। ९।।
मत्प्रसादात्परं स्तोत्रं हृदये प्रतिभासताम् ।
तेन नाम्नां सहस्रेण पूजयन् काममाप्नुहि ।। १०।।
इत्युक्त्वान्तर्हितायां तु हृदये स्फुरितं तदा ।
नाम्नां सहस्रं दुर्गायाः पृच्छते मे यदुक्तवान् ।। ११।।
मङ्गलानां मङ्गलं तद् दुर्गानाम सहस्रकम् ।
सर्वाभीष्टप्रदां पुंसां ब्रवीम्यखिलकामदम् ।। १२।।
दुर्गादेवी समाख्याता हिमवानृषिरुच्यते ।
छन्दोनुष्टुप् जपो देव्याः प्रीतये क्रियते सदा ।। १३।।

ऋषिच्छन्दांसि – अस्य श्रीदुर्गास्तोत्रमहामन्त्रस्य । हिमवान् ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । दुर्गाभगवती देवता । श्रीदुर्गाप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
श्रीभगवत्यै दुर्गायै नमः ।

देवीध्यानम्
ॐ ह्रीं कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां
शङ्खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम् ।
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः ।।
श्री जयदुर्गायै नमः ।

ॐ शिवाऽथोमा रमा शक्तिरनन्ता निष्कलाऽमला ।
शान्ता माहेश्वरी नित्या शाश्वता परमा क्षमा ।। १।।
अचिन्त्या केवलानन्ता शिवात्मा परमात्मिका ।
अनादिरव्यया शुद्धा सर्वज्ञा सर्वगाऽचला ।। २।।
एकानेकविभागस्था मायातीता सुनिर्मला ।
महामाहेश्वरी सत्या महादेवी निरञ्जना ।। ३।।
काष्ठा सर्वान्तरस्थाऽपि चिच्छक्तिश्चात्रिलालिता ।
सर्वा सर्वात्मिका विश्वा ज्योतीरूपाऽक्षराऽमृता ।। ४।।
शान्ता प्रतिष्ठा सर्वेशा निवृत्तिरमृतप्रदा ।
व्योममूर्तिर्व्योमसंस्था व्योमधाराऽच्युताऽतुला ।। ५।।
अनादिनिधनाऽमोघा कारणात्मकलाकुला ।
ऋतुप्रथमजाऽनाभिरमृतात्मसमाश्रया ।। ६।।
प्राणेश्वरप्रिया नम्या महामहिषघातिनी ।
प्राणेश्वरी प्राणरूपा प्रधानपुरुषेश्वरी ।। ७।।
सर्वशक्तिकलाऽकामा महिषेष्टविनाशिनी ।
सर्वकार्यनियन्त्री च सर्वभूतेश्वरेश्वरी ।। ८।।
अङ्गदादिधरा चैव तथा मुकुटधारिणी ।
सनातनी महानन्दाऽऽकाशयोनिस्तथेच्यते ।। ९।।
चित्प्रकाशस्वरूपा च महायोगेश्वरेश्वरी ।
महामाया सदुष्पारा मूलप्रकृतिरीशिका ।। १०।।
संसारयोनिः सकला सर्वशक्तिसमुद्भवा ।
संसारपारा दुर्वारा दुर्निरीक्षा दुरासदा ।। ११।।
प्राणशक्तिश्च सेव्या च योगिनी परमाकला ।
महाविभूतिर्दुर्दर्शा मूलप्रकृतिसम्भवा ।। १२।।
अनाद्यनन्तविभवा परार्था पुरुषारणिः ।
सर्गस्थित्यन्तकृच्चैव सुदुर्वाच्या दुरत्यया ।। १३।।
शब्दगम्या शब्दमाया शब्दाख्यानन्दविग्रहा ।
प्रधानपुरुषातीता प्रधानपुरुषात्मिका ।। १४।।
पुराणी चिन्मया पुंसामिष्टदा पुष्टिरूपिणी ।
पूतान्तरस्था कूटस्था महापुरुषसंज्ञिता ।। १५।।
जन्ममृत्युजरातीता सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।
वाञ्छाप्रदाऽनवच्छिन्नप्रधानानुप्रवेशिनी ।। १६।।
क्षेत्रज्ञाऽचिन्त्यशक्तिस्तु प्रोच्यतेऽव्यक्तलक्षणा ।
मलापवर्जिताऽऽनादिमाया त्रितयतत्त्विका ।। १७।।
प्रीतिश्च प्रकृतिश्चैव गुहावासा तथोच्यते ।
महामाया नगोत्पन्ना तामसी च ध्रुवा तथा ।। १८।।
व्यक्ताऽव्यक्तात्मिका कृष्णा रक्ता शुक्ला ह्यकारणा ।
प्रोच्यते कार्यजननी नित्यप्रसवधर्मिणी ।। १९।।
सर्गप्रलयमुक्ता च सृष्टिस्थित्यन्तधर्मिणी ।
ब्रह्मगर्भा चतुर्विंशस्वरूपा पद्मवासिनी ।। २०।।
अच्युताह्लादिका विद्युद्ब्रह्मयोनिर्महालया ।
महालक्ष्मी समुद्भावभावितात्मामहेश्वरी ।। २१।।
महाविमानमध्यस्था महानिद्रा सकौतुका ।
सर्वार्थधारिणी सूक्ष्मा ह्यविद्धा परमार्थदा ।। २२।।
अनन्तरूपाऽनन्तार्था तथा पुरुषमोहिनी ।
अनेकानेकहस्ता च कालत्रयविवर्जिता ।। २३।।
ब्रह्मजन्मा हरप्रीता मतिर्ब्रह्मशिवात्मिका ।
ब्रह्मेशविष्णुसम्पूज्या ब्रह्माख्या ब्रह्मसंज्ञिता ।। २४।।
व्यक्ता प्रथमजा ब्राह्मी महारात्रीः प्रकीर्तिता ।
ज्ञानस्वरूपा वैराग्यरूपा ह्यैश्वर्यरूपिणी ।। २५।।
धर्मात्मिका ब्रह्ममूर्तिः प्रतिश्रुतपुमर्थिका ।
अपांयोनिः स्वयम्भूता मानसी तत्त्वसम्भवा ।। २६।।
ईश्वरस्य प्रिया प्रोक्ता शङ्करार्धशरीरिणी ।
भवानी चैव रुद्राणी महालक्ष्मीस्तथाऽम्बिका ।। २७।।
महेश्वरसमुत्पन्ना भुक्तिमुक्ति प्रदायिनी ।
सर्वेश्वरी सर्ववन्द्या नित्यमुक्ता सुमानसा ।। २८।।
महेन्द्रोपेन्द्रनमिता शाङ्करीशानुवर्तिनी ।
ईश्वरार्धासनगता माहेश्वरपतिव्रता ।। २९।।
संसारशोषिणी चैव पार्वती हिमवत्सुता ।
परमानन्ददात्री च गुणाग्र्या योगदा तथा ।। ३०।।
ज्ञानमूर्तिश्च सावित्री लक्ष्मीः श्रीः कमला तथा ।
अनन्तगुणगम्भीरा ह्युरोनीलमणिप्रभा ।। ३१।।
सरोजनिलया गङ्गा योगिध्येयाऽसुरार्दिनी ।
सरस्वती सर्वविद्या जगज्ज्येष्ठा सुमङ्गला ।। ३२।।
वाग्देवी वरदा वर्या कीर्तिः सर्वार्थसाधिका ।
वागीश्वरी ब्रह्मविद्या महाविद्या सुशोभना ।। ३३।।
ग्राह्यविद्या वेदविद्या धर्मविद्याऽऽत्मभाविता ।
स्वाहा विश्वम्भरा सिद्धिः साध्या मेधा धृतिः कृतिः ।। ३४।।
सुनीतिः संकृतिश्चैव कीर्तिता नरवाहिनी ।
पूजाविभाविनी सौम्या भोग्यभाग् भोगदायिनी ।। ३५।।
शोभावती शाङ्करी च लोला मालाविभूषिता ।
परमेष्ठिप्रिया चैव त्रिलोकीसुन्दरी माता ।। ३६।।
नन्दा सन्ध्या कामधात्री महादेवी सुसात्त्विका ।
महामहिषदर्पघ्नी पद्ममालाऽघहारिणी ।। ३७।।
विचित्रमुकुटा रामा कामदाता प्रकीर्तिता ।
पिताम्बरधरा दिव्यविभूषण विभूषिता ।। ३८।।
दिव्याख्या सोमवदना जगत्संसृष्टिवर्जिता ।
निर्यन्त्रा यन्त्रवाहस्था नन्दिनी रुद्रकालिका ।। ३९।।
आदित्यवर्णा कौमारी मयूरवरवाहिनी ।
पद्मासनगता गौरी महाकाली सुरार्चिता ।। ४०।।
अदितिर्नियता रौद्री पद्मगर्भा विवाहना ।
विरूपाक्षा केशिवाहा गुहापुरनिवासिनी ।। ४१।।
महाफलाऽनवद्याङ्गी कामरूपा सरिद्वरा ।
भास्वद्रूपा मुक्तिदात्री प्रणतक्लेशभञ्जना ।। ४२।।
कौशिकी गोमिनी रात्रिस्त्रिदशारिविनाशिनी ।
बहुरूपा सुरूपा च विरूपा रूपवर्जिता ।। ४३।।
भक्तार्तिशमना भव्या भवभावविनाशिनी ।
सर्वज्ञानपरीताङ्गी सर्वासुरविमर्दिका ।। ४४।।
पिकस्वनी सामगीता भवाङ्कनिलया प्रिया ।
दीक्षा विद्याधरी दीप्ता महेन्द्राहितपातिनी ।। ४५।।
सर्वदेवमया दक्षा समुद्रान्तरवासिनी ।
अकलङ्का निराधारा नित्यसिद्धा निरामया ।। ४६।।
कामधेनुबृहद्गर्भा धीमती मौननाशिनी ।
निःसङ्कल्पा निरातङ्का विनया विनयप्रदा ।। ४७।।
ज्वालामाला सहस्राढ्या देवदेवी मनोमया ।
सुभगा सुविशुद्धा च वसुदेवसमुद्भवा ।। ४८।।
महेन्द्रोपेन्द्रभगिनी भक्तिगम्या परावरा ।
ज्ञानज्ञेया परातीता वेदान्तविषया मतिः ।। ४९।।
दक्षिणा दाहिका दह्या सर्वभूतहृदिस्थिता ।
योगमाया विभागज्ञा महामोहा गरीयसी ।। ५०।।
सन्ध्या सर्वसमुद्भूता ब्रह्मवृक्षाश्रियाऽदितिः ।
बीजाङ्कुरसमुद्भूता महाशक्तिर्महामतिः ।। ५१।।
ख्यातिः प्रज्ञावती संज्ञा महाभोगीन्द्रशायिनी ।
हींकृतिः शङ्करी शान्तिर्गन्धर्वगणसेविता ।। ५२।।
वैश्वानरी महाशूला देवसेना भवप्रिया ।
महारात्री परानन्दा शची दुःस्वप्ननाशिनी ।। ५३।।
ईड्या जया जगद्धात्री दुर्विज्ञेया सुरूपिणी ।
गुहाम्बिका गणोत्पन्ना महापीठा मरुत्सुता ।। ५४।।
हव्यवाहा भवानन्दा जगद्योनिः प्रकीर्तिता ।
जगन्माता जगन्मृत्युर्जरातीता च बुद्धिदा ।। ५५।।
सिद्धिदात्री रत्नगर्भा रत्नगर्भाश्रया परा ।
दैत्यहन्त्री स्वेष्टदात्री मङ्गलैकसुविग्रहा ।। ५६।।
पुरुषान्तर्गता चैव समाधिस्था तपस्विनी ।
दिविस्थिता त्रिणेत्रा च सर्वेन्द्रियमनाधृतिः ।। ५७।।
सर्वभूतहृदिस्था च तथा संसारतारिणी ।
वेद्या ब्रह्मविवेद्या च महालीला प्रकीर्तिता ।। ५८।।
ब्राह्मणिबृहती ब्राह्मी ब्रह्मभूताऽघहारिणी ।
हिरण्मयी महादात्री संसारपरिवर्तिका ।। ५९।।
सुमालिनी सुरूपा च भास्विनी धारिणी तथा ।
उन्मूलिनी सर्वसभा सर्वप्रत्ययसाक्षिणी ।। ६०।।
सुसौम्या चन्द्रवदना ताण्डवासक्तमानसा ।
सत्त्वशुद्धिकरी शुद्धा मलत्रयविनाशिनी ।। ६१।।
जगत्त्त्रयी जगन्मूर्तिस्त्रिमूर्तिरमृताश्रया ।
विमानस्था विशोका च शोकनाशिन्यनाहता ।। ६२।।
हेमकुण्डलिनी काली पद्मवासा सनातनी ।
सदाकीर्तिः सर्वभूतशया देवी सतांप्रिया ।। ६३।।
ब्रह्ममूर्तिकला चैव कृत्तिका कञ्जमालिनी ।
व्योमकेशा क्रियाशक्तिरिच्छाशक्तिः परागतिः ।। ६४।।
क्षोभिका खण्डिकाभेद्या भेदाभेदविवर्जिता ।
अभिन्ना भिन्नसंस्थाना वशिनी वंशधारिणी ।। ६५।।
गुह्यशक्तिर्गुह्यतत्त्वा सर्वदा सर्वतोमुखी ।
भगिनी च निराधारा निराहारा प्रकीर्तिता ।। ६६।।
निरङ्कुशपदोद्भूता चक्रहस्ता विशोधिका ।
स्रग्विणी पद्मसम्भेदकारिणी परिकीर्तिता ।। ६७।।
परावरविधानज्ञा महापुरुषपूर्वजा ।
परावरज्ञा विद्या च विद्युज्जिह्वा जिताश्रया ।। ६८।।
विद्यामयी सहस्राक्षी सहस्रवदनात्मजा ।
सहस्ररश्मिःसत्वस्था महेश्वरपदाश्रया ।। ६९।।
ज्वालिनी सन्मया व्याप्ता चिन्मया पद्मभेदिका ।
महाश्रया महामन्त्रा महादेवमनोरमा ।। ७०।।
व्योमलक्ष्मीः सिंहरथा चेकितानाऽमितप्रभा ।
विश्वेश्वरी भगवती सकला कालहारिणी ।। ७१।।
सर्ववेद्या सर्वभद्रा गुह्या दूढा गुहारणी ।
प्रलया योगधात्री च गङ्गा विश्वेश्वरी तथा ।। ७२।।
कामदा कनका कान्ता कञ्जगर्भप्रभा तथा ।
पुण्यदा कालकेशा च भोक्त्त्री पुष्करिणी तथा ।। ७३।।
सुरेश्वरी भूतिदात्री भूतिभूषा प्रकीर्तिता ।
पञ्चब्रह्मसमुत्पन्ना परमार्थाऽर्थविग्रहा ।। ७४।।
वर्णोदया भानुमूर्तिर्वाग्विज्ञेया मनोजवा ।
मनोहरा महोरस्का तामसी वेदरूपिणी ।। ७५।।
वेदशक्तिर्वेदमाता वेदविद्याप्रकाशिनी ।
योगेश्वरेश्वरी माया महाशक्तिर्महामयी ।। ७६।।
विश्वान्तःस्था वियन्मूर्तिर्भार्गवी सुरसुन्दरी ।
सुरभिर्नन्दिनी विद्या नन्दगोपतनूद्भवा ।। ७७।।
भारती परमानन्दा परावरविभेदिका ।
सर्वप्रहरणोपेता काम्या कामेश्वरेश्वरी ।। ७८।।
अनन्तानन्दविभवा हृल्लेखा कनकप्रभा ।
कूष्माण्डा धनरत्नाढ्या सुगन्धा गन्धदायिनी ।। ७९।।
त्रिविक्रमपदोद्भूता चतुरास्या शिवोदया ।
सुदुर्लभा धनाध्यक्षा धन्या पिङ्गललोचना ।। ८०।।
शान्ता प्रभास्वरूपा च पङ्कजायतलोचना ।
इन्द्राक्षी हृदयान्तःस्था शिवा माता च सत्क्रिया ।। ८१।।
गिरिजा च सुगूढा च नित्यपुष्टा निरन्तरा ।
दुर्गा कात्यायनी चण्डी चन्द्रिका कान्तविग्रहा ।। ८२।।
हिरण्यवर्णा जगती जगद्यन्त्रप्रवर्तिका ।
मन्दराद्रिनिवासा च शारदा स्वर्णमालिनी ।। ८३।।
रत्नमाला रत्नगर्भा व्युष्टिर्विश्वप्रमाथिनी ।
पद्मानन्दा पद्मनिभा नित्यपुष्टा कृतोद्भवा ।। ८४।।
नारायणी दुष्टशिक्षा सूर्यमाता वृषप्रिया ।
महेन्द्रभगिनी सत्या सत्यभाषा सुकोमला ।। ८५।।
वामा च पञ्चतपसां वरदात्री प्रकीर्तिता ।
वाच्यवर्णेश्वरी विद्या दुर्जया दुरतिक्रमा ।। ८६।।
कालरात्रिर्महावेगा वीरभद्रप्रिया हिता ।
भद्रकाली जगन्माता भक्तानां भद्रदायिनी ।। ८७।।
कराला पिङ्गलाकारा कामभेत्त्री महामनाः ।
यशस्विनी यशोदा च षडध्वपरिवर्तिका ।। ८८।।
शङ्खिनी पद्मिनी संख्या सांख्ययोगप्रवर्तिका ।
चैत्रादिर्वत्सरारूढा जगत्सम्पूरणीन्द्रजा ।। ८९।।
शुम्भघ्नी खेचराराध्या कम्बुग्रीवा बलीडिता ।
खगारूढा महैश्वर्या सुपद्मनिलया तथा ।। ९०।।
विरक्ता गरुडस्था च जगतीहृद्गुहाश्रया ।
शुम्भादिमथना भक्तहृद्गह्वरनिवासिनी ।। ९१।।
जगत्त्त्रयारणी सिद्धसङ्कल्पा कामदा तथा ।
सर्वविज्ञानदात्री चानल्पकल्मषहारिणी ।। ९२।।
सकलोपनिषद्गम्या दुष्टदुष्प्रेक्ष्यसत्तमा ।
सद्वृता लोकसंव्याप्ता तुष्टिः पुष्टिः क्रियावती ।। ९३।।
विश्वामरेश्वरी चैव भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी ।
शिवाधृता लोहिताक्षी सर्पमालाविभूषणा ।। ९४।।
निरानन्दा त्रिशूलासिधनुर्बाणादिधारिणी ।
अशेषध्येयमूर्तिश्च देवतानां च देवता ।। ९५।।
वराम्बिका गिरेः पुत्री निशुम्भविनिपातिनी ।
सुवर्णा स्वर्णलसिताऽनन्तवर्णा सदाधृता ।। ९६।।
शाङ्करी शान्तहृदया अहोरात्रविधायिका ।
विश्वगोप्त्री गूढरूपा गुणपूर्णा च गार्ग्यजा ।। ९७।।
गौरी शाकम्भरी सत्यसन्धा सन्ध्यात्रयीधृता ।
सर्वपापविनिर्मुक्ता सर्वबन्धविवर्जिता ।। ९८।।
सांख्ययोगसमाख्याता अप्रमेया मुनीडिता ।
विशुद्धसुकुलोद्भूता बिन्दुनादसमादृता ।। ९९।।
शम्भुवामाङ्कगा चैव शशितुल्यनिभानना ।
वनमालाविराजन्ती अनन्तशयनादृता ।। १००।।
नरनारायणोद्भूता नारसिंही प्रकीर्तिता ।
दैत्यप्रमाथिनी शङ्खचक्रपद्मगदाधरा ।। १०१।।
सङ्कर्षणसमुत्पन्ना अम्बिका सज्जनाश्रया ।
सुवृता सुन्दरी चैव धर्मकामार्थदायिनी ।। १०२।।
मोक्षदा भक्तिनिलया पुराणपुरुषादृता ।
महाविभूतिदाऽऽराध्या सरोजनिलयाऽसमा ।। १०३।।
अष्टादशभुजाऽनादिर्नीलोत्पलदलाक्षिणी ।
सर्वशक्तिसमारूढा धर्माधर्मविवर्जिता ।। १०४।।
वैराग्यज्ञाननिरता निरालोका निरिन्द्रिया ।
विचित्रगहनाधारा शाश्वतस्थानवासिनी ।। १०५।।
ज्ञानेश्वरी पीतचेला वेदवेदाङ्गपारगा ।
मनस्विनी मन्युमाता महामन्युसमुद्भवा ।। १०६।।
अमन्युरमृतास्वादा पुरन्दरपरिष्टुता ।
अशोच्या भिन्नविषया हिरण्यरजतप्रिया ।। १०७।।
हिरण्यजननी भीमा हेमाभरणभूषिता ।
विभ्राजमाना दुर्ज्ञेया ज्योतिष्टोमफलप्रदा ।। १०८।।
महानिद्रासमुत्पत्तिरनिद्रा सत्यदेवता ।
दीर्घा ककुद्मिनी पिङ्गजटाधारा मनोज्ञधीः ।। १०९।।
महाश्रया रमोत्पन्ना तमःपारे प्रतिष्ठिता ।
त्रितत्त्वमाता त्रिविधा सुसूक्ष्मा पद्मसंश्रया ।। ११०।।
शान्त्यतीतकलाऽतीतविकारा श्वेतचेलिका ।
चित्रमाया शिवज्ञानस्वरूपा दैत्यमाथिनी ।। १११।।
काश्यपी कालसर्पाभवेणिका शास्त्रयोनिका ।
त्रयीमूर्तिः क्रियामूर्तिश्चतुर्वर्गा च दर्शिनी ।। ११२।।
नारायणी नरोत्पन्ना कौमुदी कान्तिधारिणी ।
कौशिकी ललिता लीला परावरविभाविनी ।। ११३।।
वरेण्याऽद्भुतमहात्म्या वडवा वामलोचना ।
सुभद्रा चेतनाराध्या शान्तिदा शान्तिवर्धिनी ।। ११४।।
जयादिशक्तिजननी शक्तिचक्रप्रवर्तिका ।
त्रिशक्तिजननी जन्या षट्सूत्रपरिवर्णिता ।। ११५।।
सुधौतकर्मणाऽऽराध्या युगान्तदहनात्मिका ।
सङ्कर्षिणी जगद्धात्री कामयोनिः किरीटिनी ।। ११६।।
ऐन्द्री त्रैलोक्यनमिता वैष्णवी परमेश्वरी ।
प्रद्युम्नजननी बिम्बसमोष्ठी पद्मलोचना ।। ११७।।
मदोत्कटा हंसगतिः प्रचण्डा चण्डविक्रमा ।
वृषाधीशा परात्मा च विन्ध्या पर्वतवासिनी ।। ११८।।
हिमवन्मेरुनिलया कैलासपुरवासिनी ।
चाणूरहन्त्री नीतिज्ञा कामरूपा त्रयीतनुः ।। ११९।।
व्रतस्नाता धर्मशीला सिंहासननिवासिनी ।
वीरभद्रादृता वीरा महाकालसमुद्भवा ।। १२०।।
विद्याधरार्चिता सिद्धसाध्याराधितपादुका ।
श्रद्धात्मिका पावनी च मोहिनी अचलात्मिका ।। १२१।।
महाद्भुता वारिजाक्षी सिंहवाहनगामिनी ।
मनीषिणी सुधावाणी वीणावादनतत्परा ।। १२२।।
श्वेतवाहनिषेव्या च लसन्मतिररुन्धती ।
हिरण्याक्षी तथा चैव महानन्दप्रदायिनी ।। १२३।।
वसुप्रभा सुमाल्याप्तकन्धरा पङ्कजानना ।
परावरा वरारोहा सहस्रनयनार्चिता ।। १२४।।
श्रीरूपा श्रीमती श्रेष्ठा शिवनाम्नी शिवप्रिया ।
श्रीप्रदा श्रितकल्याणा श्रीधरार्धशरीरिणी ।। १२५।।
श्रीकलाऽनन्तदृष्टिश्च ह्यक्षुद्राऽऽरातिसूदनी ।
रक्तबीजनिहन्त्री च दैत्यसङ्गविमर्दिनी ।। १२६।।
सिंहारूढा सिंहिकास्या दैत्यशोणितपायिनी ।
सुकीर्तिसहिताच्छिन्नसंशया रसवेदिनी ।। १२७।।
गुणाभिरामा नागारिवाहना निर्जरार्चिता ।
नित्योदिता स्वयंज्योतिः स्वर्णकाया प्रकीर्तिता ।। १२८।।
वज्रदण्डाङ्किता चैव तथाऽमृतसञ्जीविनी ।
वज्रच्छन्ना देवदेवी वरवज्रस्वविग्रहा ।। १२९।।
माङ्गल्या मङ्गलात्मा च मालिनी माल्यधारिणी ।
गन्धर्वी तरुणी चान्द्री खड्गायुधधरा तथा ।। १३०।।
सौदामिनी प्रजानन्दा तथा प्रोक्ता भृगूद्भवा ।
एकानङ्गा च शास्त्रार्थकुशला धर्मचारिणी ।। १३१।।
धर्मसर्वस्ववाहा च धर्माधर्मविनिश्चया ।
धर्मशक्तिर्धर्ममया धार्मिकानां शिवप्रदा ।। १३२।।
विधर्मा विश्वधर्मज्ञा धर्मार्थान्तरविग्रहा ।
धर्मवर्ष्मा धर्मपूर्वा धर्मपारङ्गतान्तरा ।। १३३।।
धर्मोपदेष्ट्री धर्मात्मा धर्मगम्या धराधरा ।
कपालिनी शाकलिनी कलाकलितविग्रहा ।। १३४।।
सर्वशक्तिविमुक्ता च कर्णिकारधराऽक्षरा।
कंसप्राणहरा चैव युगधर्मधरा तथा ।। १३५।।
युगप्रवर्तिका प्रोक्ता त्रिसन्ध्या ध्येयविग्रहा ।
स्वर्गापवर्गदात्री च तथा प्रत्यक्षदेवता ।। १३६।।
आदित्या दिव्यगन्धा च दिवाकरनिभप्रभा ।
पद्मासनगता प्रोक्ता खड्गबाणशरासना ।। १३७।।
शिष्टा विशिष्टा शिष्टेष्टा शिष्टश्रेष्ठप्रपूजिता ।
शतरूपा शतावर्ता वितता रासमोदिनी ।। १३८।।
सूर्येन्दुनेत्रा प्रद्युम्नजननी सुष्ठुमायिनी ।
सूर्यान्तरस्थिता चैव सत्प्रतिष्ठतविग्रहा ।। १३९।।
निवृत्ता प्रोच्यते ज्ञानपारगा पर्वतात्मजा ।
कात्यायनी चण्डिका च चण्डी हैमवती तथा ।। १४०।।
दाक्षायणी सती चैव भवानी सर्वमङ्गला ।
धूम्रलोचनहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी ।। १४१।।
योगनिद्रा योगभद्रा समुद्रतनया तथा ।
देवप्रियङ्करी शुद्धा भक्तभक्तिप्रवर्धिनी ।। १४२।।
त्रिणेत्रा चन्द्रमुकुटा प्रमथार्चितपादुका ।
अर्जुनाभीष्टदात्री च पाण्डवप्रियकारिणी ।। १४३।।
कुमारलालनासक्ता हरबाहूपधानिका ।
विघ्नेशजननी भक्तविघ्नस्तोमप्रहारिणी ।। १४४।।
सुस्मितेन्दुमुखी नम्या जयाप्रियसखी तथा ।
अनादिनिधना प्रेष्ठा चित्रमाल्यानुलेपना ।। १४५।।
कोटिचन्द्रप्रतीकाशा कूटजालप्रमाथिनी ।
कृत्याप्रहारिणी चैव मारणोच्चाटनी तथा ।। १४६।।
सुरासुरप्रवन्द्याङ्घ्रिर्मोहघ्नी ज्ञानदायिनी ।
षड्वैरिनिग्रहकरी वैरिविद्राविणी तथा ।। १४७।।
भूतसेव्या भूतदात्री भूतपीडाविमर्दिका ।
नारदस्तुतचारित्रा वरदेशा वरप्रदा ।। १४८।।
वामदेवस्तुता चैव कामदा सोमशेखरा ।
दिक्पालसेविता भव्या भामिनी भावदायिनी ।। १४९।।
स्त्रीसौभाग्यप्रदात्री च भोगदा रोगनाशिनी ।
व्योमगा भूमिगा चैव मुनिपूज्यपदाम्बुजा ।
वनदुर्गा च दुर्बोधा महादुर्गा प्रकीर्तिता ।। १५०।।


फलश्रुतिः
इतीदं कीर्तिदं भद्र दुर्गानामसहस्रकम् ।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं तस्य लक्ष्मीः स्थिरा भवेत् ।। १।।
ग्रहभूतपिशाचादिपीडा नश्यत्यसंशयम् ।
बालग्रहादिपीडायाः शान्तिर्भवति कीर्तनात् ।। २।।
मारिकादिमहारोगे पठतां सौख्यदं नृणाम् ।
व्यवहारे च जयदं शत्रुबाधानिवारकम् ।। ३।।
दम्पत्योः कलहे प्राप्ते मिथः प्रेमाभिवर्धकम् ।
आयुरारोग्यदं पुंसां सर्वसम्पत्प्रदायकम् ।। ४।।
विद्याभिवर्धकं नित्यं पठतामर्थसाधकम् ।
शुभदं शुभकार्येषु पठतां शृणुतामपि ।। ५।।
यः पूजयति दुर्गां तां दुर्गानामसहस्रकैः ।
पुष्पैः कुङ्कुमसम्मिश्रैः स तु यत्काङ्क्षते हृदि ।। ६।।
तत्सर्वं समवाप्नोति नास्ति नास्त्यत्र संशयः ।
यन्मुखे ध्रियते नित्यं दुर्गानामसहस्रकम् ।। ७।।
किं तस्येतरमन्त्रौघैः कार्यं धन्यतमस्य हि ।
दुर्गानामसहस्रस्य पुस्तकं यद्गृहे भवेत् ।। ८।।
न तत्र ग्रहभूतादिबाधा स्यान्मङ्गलास्पदे ।
तद्गृहं पुण्यदं क्षेत्रं देवीसान्निध्यकारकम् ।। ९।।
एतस्य स्तोत्रमुख्यस्य पाठकः श्रेष्ठमन्त्रवित् ।
देवतायाः प्रसादेन सर्वपूज्यः सुखी भवेत् ।। १०।।
इत्येतन्नगराजेन कीर्तितं मुनिसत्तम ।
गुह्याद्गुह्यतरं स्तोत्रं त्वयि स्नेहात् प्रकीर्तितम् ।। ११।।
भक्ताय श्रद्धधानाय केवलं कीर्त्यतामिदम् ।
हृदि धारय नित्यं त्वं देव्यनुग्रहसाधकम् ।। १२।। ।।

इति श्रीस्कान्दपुराणे स्कन्दनारदसंवादे दुर्गासहस्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।

समाप्त
अन्तःकरण की परिपूर्णता में से ही वाणी मुखरित होती है और अन्तःकरण की परिपूर्णता के पश्चात् ही हाथ भी काम करते है।

।। दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं ( विश्वसारतन्त्र ) ।।

☀☀☀☀☀।। दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं ( विश्वसारतन्त्र ) ।।☀☀☀☀☀

ईश्वर उवाच

शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने ।
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती ।। १।।

ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी ।
आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी ।। २।।
पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः ।
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः ।। ३।।
सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्द स्वरूपिणी ।
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः ।। ४।।
शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा ।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ।। ५।।
अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती ।
पट्टाम्बर परीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी ।। ६।।
अमेयविक्रमा क्रुरा सुन्दरी सुरसुन्दरी ।
वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता ।। ७।।
ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा ।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः ।। ८।।
विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा ।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहन वाहना ।। ९।।
निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी ।
मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी ।। १०।।
सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी ।
सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा ।। ११।।
अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी ।
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः ।। १२।।
अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा ।
महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला ।। १३।।
अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी ।
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी ।। १४।।
शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी ।
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी ।। १५।।

य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम् ।
नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति ।। १६।।

धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च ।
चतुर्वर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम् ।। १७।।

कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम् ।
पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम् ।। १८।।

तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वैः सुरवरैरपि ।
राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात् ।। १९।।

गोरोचनालक्तककुङ्कुमेव सिन्धूरकर्पूरमधुत्रयेण ।
विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः ।। २०।।

भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते ।
विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् संपदां पदम् ।। २१।।

।। इति श्री विश्वसारतन्त्रे दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं समाप्तम् ।।

समाप्त
आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिए मंत्र

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

Durga Mantra (श्रीचण्डिका-हृदय-स्तोत्र)

=☀☀☀☀☀श्रीचण्डिका-हृदय-स्तोत्र☀☀☀☀☀= :

प्रस्तुत मन्त्रात्मक-श्रीचण्डिका-हृदय-स्तोत्र का सविधि तीनों सन्ध्याओं में पाठ करने से पाठ करने वाले व्यक्ति की सभी कामनाएँ पूर्ण होती है । प्रति सन्ध्या-काल में इस स्तोत्र का पाठ २१-२१ बार करना चाहिए । केवल पहले पाठ में विनियोग से ध्यान तक की प्रारम्भिक क्रिया और अन्तिम पाठ में फल-श्रुति का पाठ करना चाहिए । शेष २० पाठों में मात्र स्तोत्र का पाठ करना चाहिए अर्थात् ऐं ह्रीं क्लीं से साधय स्वाहा तक ।

विनियोगः- ॐ अस्य श्रीचण्डिका-हृदय-स्तोत्र-मन्त्रस्य श्रीमार्कण्डेय ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । श्री चण्डिका देवता । ह्रां बीजं । ह्रीं शक्ति । ह्रूं कीलकं । श्रीचण्डिका प्रीतये जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीमार्कण्डेय ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे । श्री चण्डिका देवतायै नमः हृदि । ह्रां बीजाय नमः लिंगे । ह्रीं शक्तये नमः नाभौ । ह्रूं कीलकाय नमः पादयो । श्रीचण्डिका प्रीतये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास
ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा शिरसे स्वाहा
ह्रूं मध्यमाभ्यां वषट् शिखायै वषट्
ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं कवचाय हुं
ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् नेत्र-त्रयाय वौषट्
ह्रः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां फट् अस्त्राय फट्
ध्यानः- सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके, शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ।
।। मूल-पाठ ।।
ऐं ह्रीं क्लीं ह्रां ह्रीं ह्रूं जय चामुण्डे, चण्डिके, त्रिदश-मणि-मुकुट-कोटीर-संघट्टित-चरणारविन्दे, गायत्री, सावित्री, सरस्वति, महाऽहि-कृताभरणे, भैरव-रुप-धारिणि, प्रगटित-दंष्ट्रीग्र-वदने, घोरे, घोरानने, ज्वल ज्वल ज्वाला-सहस्र-परिवृते, महाऽट्टहास-वधिरी-कृत-दिगन्तरे, सर्वायुध-परिपूर्णे, कपाल-हस्ते, जगाजिनोत्तरीये, भूत-वेताल-वृन्द-परिवृते, प्रकम्पित-चराचरे, मधु-कैटभ-महिषासुर-धूम्रलोचन-चण्ड-मुण्ड-रक्तवीज-शुम्भ-निशुम्भादि-दैत्य-निष्कण्टके, काल-रात्रि, महा-माये, शिवे, नित्ये, इन्द्राग्नि-यम-निर्ऋति-वरुण-वायु-सोमेशान-प्रधान-शक्ति-भूते, ब्रह्म-विष्णु-शिव-स्तुते, त्रिभुवन-धराधारे, वामे, ज्येष्ठे, वरदे, रौद्रि, अम्बिके, ब्राह्मि, माहेश्वरि, कौमारि, वैष्णवि, शंखिनि, वाराहीन्द्राणि, चामुण्डे, शिव-दूति, महा-काली-महा-लक्ष्मी-महा-सरस्वति-स्वरुपे, नाद-मध्य-स्थिते, महोग्र-विषोरग-फणाफणि-घटित-मुकुट-कटकादि-रत्न-महा-ज्वाला-मय-पाद-बाहु-कण्ठोत्तमांगे, मालाऽकुले, महा-महिषोपरि-गन्धर्व-विद्याधराराधिते, नव-रत्न-निधि-कोशे, तत्त्व-स्वरुपे, वाक्-पाणि-पाद-पायूपस्थात्मिके, शब्द-स्पर्श-रुप-रस-गन्धादि-स्वरुपे, त्वक्-चक्षु-श्रोतृ-जिह्वा-घ्राण-महा-बुद्धि-स्थिते, ॐ-कार-ऐं-कार-ह्रीं-कार-क्लीं-कार-हस्ते !
आं क्रों आग्नेय-नयन-पात्रे प्रवेशय प्रवेशय, द्रां शोषय शोषय, द्रीं सुकुमारय सुकुमारय, श्रीसर्वं प्रवेशय प्रवेशय ।
त्रैलोक्य-वर-वर्णिनि ! समस्त-चित्तं वशी कुरु कुरु, मम शत्रून् शीघ्रं मारय मारय, हाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्त्यवस्थास्वस्मान् राज-चौराग्नि-जल-वात-विष-भूत-शत्रु-मृत्यु-ज्वरादि-स्फोटकादि-नाना-रोगेभ्यो नानापवादेभ्यः पर-कर्म-मन्त्र-तन्त्र-यन्त्रोषध-शल्य-शून्य-क्षुद्रेभ्यः सम्यङ् मां रक्ष रक्ष । ओं ऐं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः, स्फ्रां स्फ्रीं स्फ्रूं स्फ्रैं स्फ्रौं, मम सर्व-कार्य-कर्माणि साधय साधय हुं फट् स्वाहा । राज-द्वारे श्मशाने वा विवादे शत्रु-संकटे । भूतानि-चोर-मध्यस्थे मम कार्याणि साधय स्वाहा ।
।। फल-श्रुति ।।
चण्डिका-हृदयं गुह्यं, त्रि-सन्ध्यं यः पठेन्नरः । सर्व-काम-प्रदं पुंसां, भुक्तिं मुक्तिं प्रयच्छति ।।..संपूर्ण विश्व को चलाने वाली कण-कण में व्याप्त महामाया की शक्ति अनादि व अनंत है। माँ जगदम्बा स्वयं ही संपूर्ण चराचर की अधिष्ठात्री भी हैं। माँ देवी के समस्त अवतारों की पूजा, अर्चना व उपासना करने से उपासना का तेज बढ़ता है एवं दुष्टों को दंड मिलता है। नवदुर्गाओं का आवाहन अर्थात् नवरात्रि में माँ भगवती श्री जगदम्बा की आराधना अत्यधिक फलप्रदायिनी होती है। हठयोगानुसार मानव शरीर के नौ छिद्रों को महामाया की नौ शक्तियाँ माना जाता है।
महादेवी की अष्टभुजाएं क्रमश: पंचमहाभूत व तीन महागुण है। महादेवी की महाशक्ति का प्रत्येक अवतार तन्त्रशास्त्र से संबंधित है, यह भी अपने आप में देवी की एक अद्भुत महिमा है।
शिवपुराणानुसार महादेव के दशम अवतारों में महाशक्ति माँ जगदम्बा प्रत्येक अवतार में उनके साथ अवतरित थीं। उन समस्त अवतारों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-
(1) महादेव के महाकाल अवतार में देवी महाकाली के रूप में उनके साथ थीं।
(2) महादेव के तारकेश्वर अवतार में भगवती तारा के रूप में उनके साथ थीं।
(3) महादेव के भुवनेश अवतार में माँ भगवती भुवनेश्वरी के रूप में उनके साथ थीं।
(4) महादेव के षोडश अवतार में देवी षोडशी के रूप में साथ थीं।
(5) महादेव के भैरव अवतार में देवी जगदम्बा भैरवी के रूप में साथ थीं।
(6) महादेव के छिन्नमस्तक अवतार के समय माँ भगवती छिन्नमस्ता रूप में उनके साथ थीं।
(7) महादेव के ध्रूमवान अवतार के समय धूमावती के रूप में देवी उनके साथ थीं।
(8) महादेव के बगलामुखी अवतार के समय देवी जगदम्बा बगलामुखी रूप में उनके साथ थीं।
(9) महादेव के मातंग अवतार के समय देवी मातंगी के रूप में उनके साथ थीं।
(10) महादेव के कमल अवतार के समय कमला के रूप में देवी उनके साथ थीं।
दस महाविद्या के नाम से प्रचलित महामाया माँ जगत् जननी जगदम्बा के ये दस रूप तांत्रिकों आदि उपासकों की आराधना का अभिन्न अंग हैं, इन महाविद्याओं द्वारा उपासक कई प्रकार की सिद्धियां व मनोवांछित फल की प्राप्ति करता है।

समाप्त
भय नाश के लिए मंत्र

“सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते। भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥

श्री गर्भ रक्षाम्बिका स्तोत्रं
ॐ ॐ

अजन्मी संतान की रक्षा करता है

☀☀☀☀☀श्री गर्भ रक्षाम्बिका स्तोत्रं☀☀☀☀☀

संतान के जन्म की माता-पिता के साथ समूचे परिवार को प्रतीक्षा रहती है। लेकिन आज की जीवनशैली में संतान का जन्म इतना आसान नहीं रहा और कई तरह की जटिलताओं के चलते शिशु गर्भ में सुरक्षित नहीं रह पाता है। पुराणों में गर्भ धारण करने के साथ ही स्त्रियों के लिए श्री गर्भ रक्षाम्बिका स्तोत्रं का वाचन उत्तम बताया गया है। प्रस्तुत है श्री गर्भ रक्षाम्बिका स्तोत्रं जो अजन्मी संतान की रक्षा करता है-

श्री माधवी काननस्ये गर्भ
रक्षांबिके पाही भक्ताम् स्थुवन्तम्। (हर श्लोक के बाद)

वापी तटे वाम भागे, वाम देवस्य देवी स्थिता त्वां,
मानया वारेन्या वादानया, पाही,
गर्भस्या जन्थुन तथा भक्ता लोकान ॥ १ ॥

श्री गर्भ रक्षा पुरे या दिव्या,
सौंन्दर्या युक्ता ,सुमंगलया गात्री,
धात्री, जनीत्री जनानाम, दिव्या,
रुपाम ध्यारर्दाम मनोगनाम भजे तं ॥ २ ॥

आषाढ मासे सुपुन्ये, शुक्र,
वारे सुगंन्धेना गंन्धेना लिप्ता,
दिव्याम्बरा कल्प वेशा वाजा,
पेयाधी याग्यस्या भक्तस्या सुद्रष्टा ॥ ३ ॥

कल्याण धात्रीं नमस्ये, वेदी,
कंगन च स्त्रीया गर्भ रक्षा करीं त्वां,
बालै सदा सेवीथाअन्ग्रि, गर्भ
रक्षार्थ, माराधुपे थैयुपेथाम ॥४ ॥

ब्रम्होत्सव विप्र विद्ययाम वाद्य
घोषेण तुष्टाम रथेना सन्निविष्टाम्
सर्व अर्थ धात्रीं भजेअहम, देव
व्रुन्दैरा पीडायाम जगन मातरम त्वां ॥ ५ ॥

येतथ कृतम स्तोत्र रत्नम, दीक्षीथ
अनन्त रामेन देव्या तुष्टाच्यै
नित्यम् पाठयस्तु भक्तया,पुत्र-पौत्रादि भाग्यं
भवे तस्या नित्यं ॥ ६ ॥

इति श्री ब्रह्म श्री अनंत रामा दीक्षिता विरचितम् गर्भ रक्षाअम्बिका स्तोत्रं संपूर्णम्॥

समाप्त
महामारी नाश के लिए मंत्र

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥

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नवदुर्गा रक्षामंत्र
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नवदुर्गा रक्षामंत्र

नवदुर्गा

ॐ शैलपुत्री मैया रक्षा करो
ॐ जगजननि देवी रक्षा करो
ॐ नव दुर्गा नमः
ॐ जगजननी नमः

ॐ ब्रह्मचारिणी मैया रक्षा करो
ॐ भवतारिणी देवी रक्षा करो
ॐ नव दुर्गा नमः
ॐ जगजननी नमः

ॐ चंद्रघणटा चंडी रक्षा करो
ॐ भयहारिणी मैया रक्षा करो
ॐ नव दुर्गा नमः
ॐ जगजननी नमः

ॐ कुषमाणडा तुम ही रक्षा करो
ॐ शक्तिरूपा मैया रक्षा करो
ॐ नव दुर्गा नमः
ॐ जगजननी नमः

ॐ स्कन्दमाता माता मैया रक्षा करो
ॐ जगदम्बा जननि रक्षा करो
ॐ नव दुर्गा नमः
ॐ जगजननी नमः

ॐ कात्यायिनी मैया रक्षा करो
ॐ पापनाशिनी अंबे रक्षा करो
ॐ नव दुर्गा नमः
ॐ जगजननी नमः

ॐ कालरात्रि काली रक्षा करो
ॐ सुखदाती मैया रक्षा करो
ॐ नव दुर्गा नमः
ॐ जगजननी नमः

ॐ महागौरी मैया रक्षा करो
ॐ भक्तिदाती रक्षा करो
ॐ नव दुर्गा नमः
ॐ जगजननी नमः

ॐ सिद्धिरात्रि मैया रक्षा करो
ॐ नव दुर्गा देवी रक्षा करो
ॐ नव दुर्गा नमः
ॐ जगजननी नमः

।। ॐ तत् सत् ॐ ।।
समाप्त
बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये

“सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:। मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:॥”

सप्तशती का सार मंत्र

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सप्तशती का सार मंत्र-
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ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे. ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः, ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल, ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा..

इस सिद्ध मंत्र को आप सप्तशती का सार मंत्र कह सकते हैं. सप्तशती के अन्य मंत्रों यथा कवच, कीलक, अर्गला आदि मंत्रों की अपेक्षा अकेले इसी मन्त्र का नियमित 108 बार जाप करने से आपको महान सिद्धि प्राप्त हो जाती है.

यदि इस मंत्र को वास्तविक रूप में सिद्ध करना है तो इसके स्थापना मंत्र की जागृति के पश्चात निश्चित आसन पर समाधि की अवस्था में बैठकर अनवरत रूप से इसका एक लाख इक्यावन हज़ार बार जप आवश्यक है.

ध्यान रहे कि मंत्र जाप के दौरान आप कातर भाव से प्रार्थनारत रहें और अगाध निष्ठा के साथ तेज स्वर में उच्चारण करें. उच्चारण पूर्णरूप से सही होना चाहिए और किसी भी रूप में ध्यान भंग नहीं होना चाहिए.

।। ॐ तत् सत् ॐ ।।
समाप्त
सब प्रकार के कल्याण के लिये

“सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”

Durga Mantra (दुर्गा के कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र)

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दुर्गा के कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र-
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माँ दुर्गा के लोक कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र

१॰ बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये
“सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:॥” (अ॰१२,श्लो॰१३)

अर्थ :- मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाओं से मुक्त तथा धन, धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

२॰ बन्दी को जेल से छुड़ाने हेतु
“राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा।
आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे।।” (अ॰१२, श्लो॰२७)

३॰ सब प्रकार के कल्याण के लिये
“सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥” (अ॰११, श्लो॰१०)

अर्थ :- नारायणी! तुम सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है।

४॰ दारिद्र्य-दु:खादिनाश के लिये
“दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:
स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदु:खभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽ‌र्द्रचित्ता॥” (अ॰४,श्लो॰१७)

अर्थ :- माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दु:ख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिये सदा ही दया‌र्द्र रहता हो।

४॰ वित्त, समृद्धि, वैभव एवं दर्शन हेतु
“यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि।।
संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः।
यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने।।
तस्य वित्तर्द्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम्।
वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके।। (अ॰४, श्लो॰३५,३६,३७)

५॰ समस्त विद्याओं की और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिये
“विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति :॥” (अ॰११, श्लो॰६)

अर्थ :- देवि! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे एवं परा वाणी हो।

६॰ शास्त्रार्थ विजय हेतु
“विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपेष्वाद्येषु च का त्वदन्या।
ममत्वगर्तेऽति महान्धकारे, विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्।।” (अ॰११, श्लो॰ ३१)

७॰ संतान प्राप्ति हेतु
“नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भ सम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी” (अ॰११, श्लो॰४२)

८॰ अचानक आये हुए संकट को दूर करने हेतु
“ॐ इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति।
तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्ॐ।।” (अ॰११, श्लो॰५५)

९॰ रक्षा पाने के लिये
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥

अर्थ :- देवि! आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्ग से भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हमलोगों की रक्षा करें।

१०॰ शक्ति प्राप्ति के लिये
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

अर्थ :- तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

११॰ प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव॥

अर्थ :- विश्व की पीडा दूर करनेवाली देवि! हम तुम्हारे चरणों पर पडे हुए हैं, हमपर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियों की पूजनीया परमेश्वरि! सब लोगों को वरदान दो।

१२॰ विविध उपद्रवों से बचने के लिये
रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥

अर्थ :- जहाँ राक्षस, जहाँ भयंकर विषवाले सर्प, जहाँ शत्रु, जहाँ लुटेरों की सेना और जहाँ दावानल हो, वहाँ तथा समुद्र के बीच में भी साथ रहकर तुम विश्व की रक्षा करती हो।

१३॰ बाधा शान्ति के लिये
“सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥” (अ॰११, श्लो॰३८)

अर्थ :- सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।

१४॰ सर्वविध अभ्युदय के लिये
ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्ग:।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥

अर्थ :- सदा अभ्युदय प्रदान करनेवाली आप जिन पर प्रसन्न रहती हैं, वे ही देश में सम्मानित हैं, उन्हीं को धन और यश की प्राप्ति होती है, उन्हीं का धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भृत्यों के साथ धन्य माने जाते हैं।

१५॰ सुलक्षणा पत्‍‌नी की प्राप्ति के लिये
पत्‍‌नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥

अर्थ :- मन की इच्छा के अनुसार चलनेवाली मनोहर पत्‍‌नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसारसागर से तारनेवाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो।

१६॰ आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिये
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

अर्थ :- मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।

१७॰ महामारी नाश के लिये
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥

अर्थ :- जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो।

१८॰ रोग नाश के लिये
“रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥” (अ॰११, श्लो॰ २९)

अर्थ :- देवि! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवाञ्छित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं।

१९॰ विपत्ति नाश के लिये
“शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥” (अ॰११, श्लो॰१२)

अर्थ :- शरण में आये हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है।

२०॰ पाप नाश के लिये
हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव॥

अर्थ :- देवि! जो अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके दैत्यों के तेज नष्ट किये देता है, वह तुम्हारा घण्टा हमलोगों की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे माता अपने पुत्रों की बुरे कर्मो से रक्षा करती है।

१७॰ भय नाश के लिये
“सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।
भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥
एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु न: सर्वभीतिभ्य: कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥
ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥ ” (अ॰११, श्लो॰ २४,२५,२६)

अर्थ :- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्ति यों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है। कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है। भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है।

२१॰ विपत्तिनाश और शुभ की प्राप्ति के लिये
करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी
शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापद:।

अर्थ :- वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले।

२२॰ विश्व की रक्षा के लिये
या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी:
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्॥

अर्थ :- जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रतारूप से, शुद्ध अन्त:करणवाले पुरुषों के हृदय में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि! आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये।

२३॰ विश्व के अभ्युदय के लिये
विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्।
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्ति नम्रा:॥

अर्थ :- विश्वेश्वरि! तुम विश्व का पालन करती हो। विश्वरूपा हो, इसलिये सम्पूर्ण विश्व को धारण करती हो। तुम भगवान् विश्वनाथ की भी वन्दनीया हो। जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्व को आश्रय देनेवाले होते हैं।

२४॰ विश्वव्यापी विपत्तियों के नाश के लिये
देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥

अर्थ :- शरणागत की पीडा दूर करनेवाली देवि! हमपर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि! विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो।

२५॰ विश्व के पाप-ताप निवारण के लिये
देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीतेर्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्य:।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥

अर्थ :- देवि! प्रसन्न होओ। जैसे इस समय असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओं के भय से बचाओ। सम्पूर्ण जगत् का पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले महामारी आदि बडे-बडे उपद्रवों को शीघ्र दूर करो।

२६॰ विश्व के अशुभ तथा भय का विनाश करने के लिये
यस्या: प्रभावमतुलं भगवाननन्तो
ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तु मलं बलं च।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥

अर्थ :- जिनके अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत् का पालन एवं अशुभ भय का नाश करने का विचार करें।

२७॰ सामूहिक कल्याण के लिये
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्ति समूहमूत्र्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न:॥

अर्थ :- सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हमलोगों का कल्याण करें।

२८॰ भुक्ति-मुक्ति की प्राप्ति के लिये
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

२९॰ पापनाश तथा भक्ति की प्राप्ति के लिये
नतेभ्यः सर्वदा भक्तया चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

३०॰ स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिये
सर्वभूता यदा देवि स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥

३१॰ स्वर्ग और मुक्ति के लिये
“सर्वस्य बुद्धिरुपेण जनस्य ह्रदि संस्थिते।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोस्तुऽते॥” (अ॰११, श्लो८)

३२॰ मोक्ष की प्राप्ति के लिये
त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
विश्वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्
त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः॥

३३॰ स्वप्न में सिद्धि-असिद्धि जानने के लिये
दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके।
मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय॥

३४॰ प्रबल आकर्षण हेतु
“ॐ महामायां हरेश्चैषा तया संमोह्यते जगत्,
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।।” (अ॰१, श्लो॰५५)

उपरोक्त मंत्रों को संपुट मंत्रों के उपयोग में लिया जा सकता है अथवा कार्य सिद्धि के लिये स्वतंत्र रुप से भी इनका पुरश्चरण किया जा सकता है। कुछ अन्य मंत्रों की चर्चा व उपरोक्त मंत्रों के विधान भी अगली पोस्टों में देने की कोशिश करुंगी।

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Final Words:- आशा करता हू कि ये सभी कहांनिया Durga Mantra आपको जरूर पसंद आई होगी । और ये सभी कहानियां और को बहुत ही प्रेरित भी की होगा । अगर आप ऐसे ही प्रेरित कथाएँ प्रतिदिन पाना चाहते हैं तो आप हमारे इस वेबसाइट को जरूर सब्सक्राइब करले जिससे कि आप रोजाना नई काहानियों को पढ़ सके और आपको यह Post कैसी लगी हमें Comment Box में Comment करके जरूर बताए धन्यवाद।

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